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Avnish Jain | May 29, 2021 | Editorial
फिर वही संकट
कोरोना का असर अर्थव्यवस्था पर एक बार पिफर दिखने लगा है। पिछले साल जब संकट की शुरुआत हुई थी, तब भी वक्त यही था। इस साल की पहली तिमाही के आंकड़े आने में तो चार महीने लगेंगे, लेकिन हालात के संकेत गंभीर है। पिछले साल हडबड़ी में की गई अड़सठ दिन की पूर्णबंदी से अर्थव्यवस्था अभी उबर भी नहीं पाई कि पिफर से आंशिक बंदी और प्रतिबंधें ने कारोबारियों में खौपफ पैदा कर दिया। इस बार संकट कहीं ज्यादा गहरा है। संक्रमण जिस रफ्रतार से बढ़ रहा है, सरकारें एकदम लाचार है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोटों के कहने के बावजूद अस्पतालो में आक्सीजन आपूर्ति सुचारू नहीं हो पा रही है। ऐसे में लोगों को मरने से कौन बचा सकता है? इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि जो सरकार नागरिकों को आक्सीजन और दवाइंया मुहैया करवा पाने में नाकाम साबित हो रही हो, वह अर्थव्यवस्था को कैसे बचा पाएगी?
कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिस पर दूसरी लहर का असर नहीं दिख रहा हो। सबसे ज्यादा दुर्गति तो असंगठित क्षेत्रा के उद्योगों और कामगारों की हो रही है। अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्रा की भूमिका सबसे बड़ी है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में इसका भारी योगदान रहता है। सबसे ज्यादा श्रमबल भी इसी क्षेत्र में लगा है। ऐसे में पूर्णबंदी, आंशिक बंदी, कारोबार बंद रखने के प्रतिबंध् अर्थव्यवस्था को पिफर से गर्त में धकेल देंगे। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में जिस तरह की सख्त पांबदियां लगी है, वे पूर्णबंदी से कम नहीं है। राज्य के कई शहरों में बाजारों के खुलने का वक्त सीमित कर दिया गया है। मंडिया कुछ घंटे के लिए खुल रही है।
इसका असर यह हुआ है कि जो लाखों लोग दिहाड़ी मजदूरी या अन्य छोटा-मोटा काम कर गुजारा चला रहे थे, वे अब खाली हाथ हैं। उनके काम-धन्धे चोपट है। मुंबई और दूसरे औद्योगिक शहरो से बड़ी संख्या में एक बार फिर कामगारों के लौटने का सिलसिला चल पड़ा है। ऐसा हाल सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, कमोबेश सभी राज्यों का है। मसलन दिल्ली में दो हफ्ते से बंदी जारी है और बंदी के घोषणा होते ही कामगार लौटने लगे थे।
देश के बड़े थोक बाजार, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद होने से हजारों करोड़ रुपए रोजाना का नुकसान होता है। फिर हर कारोबार एक दूसरे से किसी न किसी रूप से जुड़ा है और करोड़ों लोग इनमें काम करते हैं। छोटे उद्योग तो कच्चे माल से लेकर उत्पादन और आपूर्ति-विपणन तक में दूसरों पर निर्भर होते हैं। इसलिए जब बाजार बंद होंगे, लोग निकलेंगे नहीं तो कैसे माल बिकेगा और कैसे नगदी प्रवाह जारी रहेगा। यह पिछले एक साल में हम भुगत भी चुके हैं।
इध्र, वित्त मंत्रालय भरोसा दिलाता रहा है कि दूसरी लहर का आर्थिक गतिविध्यिों पर असर ज्यादा नहीं पड़ेगा। लेकिन जिस व्यापक स्तर पर कारोबारी गतिविध्यिों में ठहराव देखने को मिल रहा है, उससे आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था पर मार पड़ना लाजिमी है। मुद्दा यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा जो होटल, पर्यटन, खानपान, थोक और खुदरा कारोबार, आपूर्ति, मनोरंजन, परिवहन सेवा, सेवा क्षेत्र आदि से जुड़ा है, वह कैसे बंदी को झेल पाएगा।
काम बंद होने पर कंपनियां वेतन देने में हाथ खड़े कर देती हैं। निर्माण क्षेत्र और जमीन जायदाद कारोबार की हालत छिपी नहीं है। निर्माण कार्य ठप पड़ने से मजदूर बेरोजगार हैं। इससे इस्पात, लोहा और आटो कम्पोनेन्ट्स जैसे क्षेत्रों में भी उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वाहन उद्योग भी रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है। यह तस्वीर पिछले साल के हालात की याद दिलाने लगी है। अगर एक बार पिफर से लंबी बंदी झेलनी पड़ गई तो अर्थव्यवस्था को पिछले साल जून की हालत में जाते देर नहीं लगेगी।